कुण्ड एवं मण्डप निर्माण
यज्ञ का मण्डप एवं कुण्ड बहुत ही सुन्दर तथा सुव्यवस्थित बने हुए
तथा कलापूर्ण सुन्दरता के साथ सजे हुए होने चाहिए । कलापूर्ण
वस्तुएँ, सुरुचिकर, आकर्षक एवं शोभनीय प्रतीत होती हैं, उनमें
चित्त लगता है । कार्यकर्त्ताओं तथा दर्शकों का मन लगता है,
चित्त प्रसन्न होता है तथा उत्साह बढ़ता है ।
इसलिए ज्यों-ज्यों, उल्टे-तिरछे कुण्ड-मण्डप बना लेने का निषेध
किया गया है और इस बात पर जोर दिया गया है, कि कला-
व्यवस्था, नाप-तौल, सौन्दर्य, शोभा आदि का ध्यान रखकर
ही इनका निर्माण किया जाय ।
यज्ञ का मण्डप किस प्रकार बनाया जाय तथा कुण्ड किस
प्रकार तैयार किये जायँ, इस सम्बन्ध में अनेक स्वतन्त्र प्राचीन
पुस्तकें उपलब्ध हैं ।
(१) विट्ठल दीक्षित कृत-कुण्डार्क
(२) शङ्कर भट्ठ कृत-
कुण्डार्क
(३) नारायण भट्ठ कृत- कुण्डदर्पण (४) अनन्त देवज्ञ
कृत-"कुण्ड मर्त्तण्ड
(५) विश्वनाथ कृत कुण्ड कौमुदी
(६)
लक्ष्मीधर भट्ठ कृत कुण्ड कारिक
(७) कुण्ड शुल्व कारिका
(८)
महादेव गुरुकृत-कुण्ड प्रदीप
(९) रामचन्द्रचार्य कृत-कुण्डोदधि
(१०) द्विवेदी विश्वनाथ कृत-कुण्ड रत्नाकर
(११) श्रीधर कृत-
कुण्डार्णव
(१२) गङ्गाधर कृत-कुण्डांकुश
(१३) नीलकंठ कृत-
कुण्डोद्योत
(१४) नारद कृत- कुण्ड नारद पंच गात्रम
(१५) बलभद्र
कृत- कुण्ड कल्पद्रुम
(१६) शुल्क माधवा कृत-कुण्ड कल्पद्रम
(१७)
कुण्ड रचना (१८) परशुराम कृत-परशुराम पद्धत्युक्त कुण्ड मण्डप
(१९) राम वाजपेयी कृत-कुण्ड राम वाजपेयी" (२०) विष्णु भट्ठ
कृत-कुण्ड मरीचित माला" (२१) नारायण सुतानन्द भट्ठ कृत-
कुण्ड मण्डप दर्पण (२२) नैमिष वासी रामचन्द्र कृत-कुण्ड श्लोक
प्रकाशिका (२३) आपदेव कृत-खेट पीठ माला (२४) नवकुण्डी
विधान (२५) सप्तष नृहरि दैवज्ञ कृत-कुण्ड मण्डप प्रकाशिका
(२६) कुण्डशुदि (२७) सूक्ष्म गणिततानीत कुण्ड मण्डप परिमाण,
विचार (२८) रामचन्द्र दीक्षित कृत-कुण्ड रत्नावली (२९)
परशुराम भट्ठ कृत-पद्मकुण्ड कोष (३०) रामकृष्ण दीक्षित कृत-
कुण्ड मण्डप पद्धति (३१) कुण्ड लक्षणम्ा् (३२)
शिवरामोपाध्याय कृत-कुण्डार्क दीधिति (३३) कृष्ण
दीक्षित कृत-मण्डार्क पद्मिनी (३४) दामोर सूरि कृत-
कुण्डार्क नौका (३५) कुण्डार्क मिताक्षरा (३६) श्रीधर
शास्त्री कृत कुण्डार्क सुप्रभा (३७) करंजकर दीक्षित कृत
कुण्डर्कोदय (३८) मयूरेश्वरोपाध्याय कृत-वेदी पद्धति (३९)
घुण्डी राज कृत-सामान्य निर्णय कर्म निर्णय आदि अनेक
पुस्तकों में अनेक प्रकार के कुण्ड तथा मण्डप बनाने के विधान,
आकार तथा नियम लिखे हुए हैं ।
मण्डपों के निर्माण में द्वार, खम्भे, तोरण द्वार, ध्वजा, शिखर,
छादन, रङ्गीन वस्त्र आदि वर्णन हैं ।
इनके वस्तु भेद, रङ्ग भेद, नाप
दिशा आदि के विधान बताए गए हैं ।
मण्डपों के नाम भी अलग-
अलग-प्रयोग विशेष के आधार पर लिखे गये हैं । कुण्डों में चतुरस्र
कुण्ड, योनि कुण्ड, अर्ध चन्द्र कुण्ड, अष्टास्त्र कुण्ड, सप्तास्त्र
कुण्ड, पञ्चास्त्र कुण्ड, आदि अनेक प्रकार के कुण्डों के खोदने के
अनेक विधान हैं ।
कुण्डों के साथ में योनियाँ लगाने का वर्णन है
। योनियों के भेद-उपभेद एवं अन्तरों का विवेचन है । इन सबका
उपयोग बहुत बड़े यज्ञों में ही सम्भव है । इसी प्रकार अनेक देव-
देवियाँ यज्ञ मण्डप के मध्य तथा दिशाओं में स्थापित की
जाती हैं ।
साधारण यज्ञों को सरल एवं सर्वोपयोगी बनाने के लिए मोटे
आधार पर ही काम करना होगा ।
मण्डप की अपने साधन और
सुविधाओं की दृष्टि से पूरी-पूरी सजावट करनी चाहिये और
उसके बनाने में कलाप्रियता, कारीगरी एवं सुरुचि का परिचय
देना चाहिए । रंगीन वस्त्रों, रंगीन कागजों, केले के पेड़ों आम्र
पल्लवों, पुष्पों, खम्भों, द्वारों, चित्रों, ध्वजाओं, आदर्श
वाक्यों, फल आदि के लटकनों से उसे भली प्रकार सजाना
चाहिए ।
वेदी का कुण्ड जो कुछ भी बनाया जाय, टेका-
तिरछा न हो । उसकी लम्बाई-चौड़ाई तथा गोलाई सधी हुई
हो । कुण्ड या वेदी को रंगविरंगे चौक पूर कर सुन्दर बनाना
चाहिये ।
पिसी हुई मेंहदी से हरा रंग, पिसी हल्दी से पीला रंग, आटे से
सफेद रंग, गुलाल या रोली से लाल रंग की रेखाएँ खींचकर, चौक
को सुन्दर बनाया जा सकता है ।
सर्वतोभद्र, देव-स्थापना की
चौकियाँ या वेदियाँ, कलश, जल घट, आसन आदि को बनाने या
रखने में भी सौन्दर्य एवं शोभा का विशेष ध्यान रखना चाहिए ।
जिस प्रकार देव मन्दिरों में भगवान की प्रतिमा नाना प्रकार
के वस्त्रों, आभूषणों, एवं श्रंङ्गारों से सजाई जाती है, उसी
प्रकार यज्ञ भगवान की शोभा के लिए भी पूरी तत्परता
दिखाई जानी चाहिये । कुण्ड और मण्डप-निर्माण के विधि-
विधानों में जहाँ विज्ञान का समावेश है, वहाँ शोभा,
सजावट, कला एवं सुरुचि प्रदर्शन भी एक महत्वपूर्ण कारण है ।
☆ कुण्ड और मण्डपों के सम्बन्ध में इस प्रकार के उल्लेख ग्रन्थों में
मिलते हैः-
बड़े यज्ञों में ३२ हाथ (४८ फुट) ३६ फुट अर्थात १६ = २४ फुट का
चौकोर मण्डप बनाना चाहिये ।
मध्यम कोटि के यज्ञों में १४
(१८ फुट) हाथ अथवा १२ हाथ (१८ फुट) का पर्प्याप्त है । छोटे
यज्ञों में १० हाथ (१५ फुट ) या ८ (१२ फुट) हाथ की लम्बाई
चौडाई का पर्याप्त है ।
मण्डप की चबूतरी जमीन से एक हाथ
या आधा हाथ ऊँची रहनी चाहिए ।
बड़े मण्डपों की मजबूती के
लिए १६ खंभे लगाने चाहिये । खम्भों को रङ्गीन वस्त्रों से
लपेटा जाना चाहिए । मण्डप के लिये प्रतीक वृक्षों की लकड़ी
तथा बाँस का प्रयोग करना चाहिए ।
मण्डप के एक हाथ बाहर चारों दिशाओं में ४ तोरण द्वार होते हैं,
यह ७ हाथ (१० फुट ६ इंच) उँचे और ३.५ चौड़े होने चाहिए ।
इन
तोरण द्वारों में से पूर्व द्वार पर शङ्क, दक्षिण वाले पर चक्र,
पच्छिम में गदा और उत्तर में पद्म बनाने चाहिए ।
इन द्वारों में
पूर्व में पीपल, पच्छिम में गूलर-उत्तर में पाकर, दक्षिण में बरगद की
लकड़ी लगाना चाहिए, यदि चारों न मिलें तो इनमें से किसी
भी प्रकार की चारों दिशाओं में लगाई जा सकती है ।
पूर्व के
तोरण में लाल वस्त्र, दक्षिण के तोरण में काला वस्त्र, पच्छिम
के तोरण में सफेद वस्त्र, उत्तर के तोरण में पीला वस्त्र लगाना
चाहिए ।
सभी दिशाओं में तिकोनी ध्वजाएँ लगानी चाहिये । पूर्व में
पीली, अग्निकोण में लाल, दक्षिण में काली, नैऋत्य में नीली,
पच्छिम में सफेद, वायव्य में धूमिल, उत्तर में हरी, ईशान में सफेद
लगानी चाहिये । दो ध्वजाएँ ब्रह्मा और अनन्त की विशेष
होती है, ब्रह्मा की लाल ध्वजा ईशान में और अनन्त की पीली
ध्वजा नैऋत कोण में लगानी चाहिए ।
इन ध्वजाओं में
सुविधानुसार वाहन और आयुध भी चित्रित किये जाते हैं ।
ध्वजा की ही तरह पताकाएं भी लगाई जाती है इन पताकाओं
की दिशा और रङ्ग भी ध्वजाओं के समान ही हैं । पताकाएं
चौकोर होती हैं । एक सबसे बड़ा महाध्वज सबसे उँचा होता है ।
मण्डप के भीतर चार दिशाओं में चार वेदी बनती हैं । ईशान में ग्रह
वेदी, अग्निकोण में योगिनी वेदी, नैऋत्य में वस्तु वेदी और
वायव्य में क्षेत्रपाल वेदी, प्रधान वेदी पूर्व दिशा में होनी
चाहिए ।
एक कुण्डी यज्ञ में मण्डप के बीच में ही कुण्ड होता है । उसमें
चौकोर या कमल जैसा पद्म कुण्ड बनाया जाता हैं । कामना
विशेष से अन्य प्रकार के कुण्ड भी बनते हैं । पंच कुण्डी यज्ञ में
आचार्य कुण्ड बीच में, चतुरस्र पूर्व में, अर्थचन्द्र दक्षिण में, वृत
पच्छिम में और पद्म उत्तर में होता है ।
नव कुण्डी यज्ञ में आचार्य
कुण्ड मध्य में चतुररसा्र कुण्ड पूर्व में, योनि कुण्ड अग्नि कोण में,
अर्धचन्द्र दक्षिण में, त्रिकोण नैऋत्य में वृत पच्छिम में, षडस्र
वायव्य में, पद्म उत्तर में, अष्ट कोण ईशान में होता है ।
प्रत्येक कुण्ड में ३ मेखलाएं होती हैं । ऊपर की मेखला ४ अंगुल,
बीच की ३ अंगुल, नीचे की २ अँगुल होनी चाहिए ।
ऊपर की
मेखला पर सफेद रङ्ग मध्य की पर लाल रङ्ग और नीचे की पर
काला रङ्ग करना चाहिए ।
५० से कम आहुतियों का हवन करना
हो तो कुण्ड बनाने की आवश्यकता नहीं ।
भूमि पर मेखलाएं
उठाकर स्थाण्डिल बना लेना चाहिए ।
५० से ९९ तक आहुतियों
के लिए २१ अंगुल का कुण्ड होना चाहिए ।
१०० से ९९९ तक के
लिए २२.५अँगुल का, एक हजार आहुतियों के लिए २ हाथ=
(१.५)फुट का, तथा एक लाख आहुतियों के लिए ४ हाथ (६
फुट)का कुण्ड बनाने का प्रमाण है ।
यज्ञ-मण्डप में पच्छिम द्वार से साष्टाङ्ग नमस्कार करने के
उपरान्त प्रवेश करना चाहिए । हवन के पदार्थ चरु आदि पूर्व
द्वार से ले जाने चाहिए । दान की सामग्री दक्षिण द्वार से
और पूजा प्रतिष्ठा की सामग्री उत्तर द्वार से ले जानी
चाहिए ।
कुण्ड के पिछले भाग में योनियों बनाई जाती है । इनके सम्बन्ध में
कतिपय विद्वानों का मत है कि वह वामार्गी प्रयोग है ।
योनि को स्त्री की मूत्रेन्दि्रय का आकार और उसके उपरिभाग
में अवस्थित किये जाने वाले गोलकों को पुरुष अण्ड का चिह्न
बना कर वे इसे अश्लील एवं अवैदिक भी बताते हैं ।
अनेक
याज्ञिक कुण्डों में योनि-निर्माण के विरुद्ध भी हैं और योनि-
रहित कुण्ड ही प्रयोग करते हैं ।
योनि निर्माण की पद्धति
वेदोक्त है या अवैदिक, इस प्रश्न पर गम्भीर विवेचना अपेक्षणीय
है ।
लम्बाई, चौड़ाई, सब दृष्टि से चौकोर कुण्ड बनाने का कुण्ड
सम्बन्धी ग्रन्थों में प्रमाण है । अनेक स्थानों पर ऐसे कुण्ड बनाये
जाते हैं, जो लम्बे चौड़े और गहरे तो समान लम्बाई के होते हैं, पर वे
तिरछे चलते हैं और नीचे पेंदे में जाकर ऊपर की अपेक्षा चौथाई-
चौड़ाई में रह जाते हैं । इसके बीच में भी दो मेखलाएं लगा दी
जाती हैं । इस प्रकार बने हुए कुण्ड अग्नि प्रज्ज्वलित करने तथा
शोभा एवं सुविधा की दृष्ठि से अधिक उपयुक्त हैं ।
आर्य
समाजों में ऐसे ही हवन-कुण्ड बनाये जाते हैं । इनके किनारे-
किनारे एक पतली नाली भी होती है जिसमें चींटी आदि
कीड़े-मकोड़ों का अग्नि तक न पहुँचने देने की रोक रहती है ।
कुण्ड के आस-पास जल-सिंचन इसी उद्देश्य के लिए ही किया
जाता है ।..
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