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Wednesday, October 23, 2013

गृहस्थोचित शिष्टाचार

अहिंसा सत्यवचनं सर्वभूतानुकम्पनम् | शमो दानं यथा शक्ति  गार्हस्थ्यो धर्म उत्तम:||
                          शुश्रुषन्ते ये पितरं मातरं च गृहाश्रमे ||
भर्तारं चॆव या नारी अग्निहोत्रं च ये द्विजा: | तेषु तेषु च प्रीणन्ति देवा इन्द्र पुरोगमा : ||
                         पितर: पितृलोकस्था: स्वधर्मेण स रज्यते |
यथा मातरमाश्रित्य सर्वे जीवन्ति जन्तव: | तथा गृहाश्रमं प्राप्य सर्वे जीवन्ति चाश्रमा:||
(भगवान महेश्वर पार्वतीजी से बोले ---देवी !)किसी भी जीव की हिंसा न करना , सत्य बोलना , सब प्राणियोंपर दया करना , मन और इन्द्रियोंपर काबू रखना तथा अपनी शक्ति के अनुसार दान देना गृहस्थ - आश्रम का उत्तम धर्म है । जो लोग गृहस्थाश्रम मे रहकर माता - पिता की सेवा करते है , जो नारी पति की सेवा करती है तथा जो ब्राह्मण नित्य अग्निहोत्र - कर्म करते है , उन सब पर इन्द्र आदि देवता , पितृलोक निवासी पितर प्रसन्न होते है एवं वह पुरुष अपने धर्म से आनन्दित होता है । जैसे सभी जीव माता का सहारा लेकर जीवन धारण करते है , उसी प्रकार सभी आश्रम गृहस्थ - आश्रम का आश्रय लेकर ही जीवन - यापन करते है । {महा० अनु०, अ० १४१ }