भक्त वह हे , जो भगवान का हो गया हे, जिसका सब कुछ भगवान के समर्पण हो गया हे । ऐसा भक्त ही वस्तुत : मुक्त पुरुष हे ;क्योकि जब तक अविद्या विद्यमान रहेती हे , तब तक मनुष्य भगवान का न होकर संसारका - संसारके भोगोंका ही गुलाम रहता हे ; वह मुक्त नहीं हे और जो ऐसा हे, वह सब कुछ भगवान के समर्पण करके भगवान का हो नहीं सकता । इस लिये जो भक्त होता हे , वह अविद्या से अज्ञानसे मुक्त भगवान की महिमा के तत्वको जानने वाला होता हे ।