प्रातःकालीन मन्त्र :---!!!
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भागः--01
शैय्या त्याग से पूर्व इन मन्त्रों का उच्चारण करते हुए ईश्वर का धन्यवाद करें---
ओम् प्रातरग्निं प्रातरिन्द्रं हवामहे प्रातर्मित्रावरुणा प्रातरश्विना।
प्रातर्भगं पूषणं ब्रह्मणस्पतिं प्रातः सोममुत रुद्रं हवेम।।1।।
(ऋग्वेदः--7.41.1)
अर्थः—प्रभात वेला में स्वप्रकाश स्वरूप परमैश्वर्य के दाता और परमैश्वर्ययुक्त प्राण-उदान के समान प्रिय और सर्वशक्तिमान् ! सूर्य-चन्द्र को जिसने उत्पन्न किया है, उस परमात्मा की हम स्तुति करते हैं और भजनीय ऐश्वर्ययुक्त पुष्टिकर्त्ता अपने उपासक, वेद और ब्रह्माण्ड के पालन करने वाले अन्तर्यामी प्रेरक और पापियों को रुलाने और सर्वरोगनाशक जगदीश्वर की हम स्तुति करते हैं।
ओम् प्रातर्जितं भगमुग्रं हुवेम वयं पुत्रमदितेर्यो विधर्ता।
आध्रश्चिद्यं मन्यमानस्तुरश्चिद् राजा चिद्यं भगं भक्षीत्याह।।2।।
(ऋग्वेदः--7.41.2)
अर्थः—हे सर्वशक्तिमान् ! महातेजस्वी परमेश्वर ! आपकी महिमा को कौन जान सकता है ? आपने सूर्य,चन्द्र, बुध, बृहस्पति, मंगल और शुक्रादि लोकों को बनाया है। इन सबको आपने धारण किया है। उनमें बसने वाले प्राणियों के गुण, कर्म, स्वभाव को आप ही जानते हैं। उनको सुख देते हैं। हे महासमर्थ प्रभु ! आपको हम प्रातःकाल में स्मरण करते हैं। वेद-मन्त्रों द्वारा आप हमें अपने स्मरण का प्रकार भी बता रहे हैं, यह आपकी अपार कृपा है।
ओम् भग प्रणेतर्भग सत्यराधो भगेमां धियमुदवा ददन्नः।
भग प्र णो जनय गोभिरश्वैर्भग प्र नृभिनृवन्तः स्याम।।3।।
(ऋग्वेदः--7.41.3)
अर्थः---हे भजनीय स्वरूप ! सबके उत्पादक सत्याचार में प्रेरक ऐश्वर्यप्रद !सत्यधन को देने वाले सत्याचरण करने वालों को ऐश्वर्यदाता आप परमेश्वर ! हमको इस प्रज्ञा को दीजिए और उसके दान से हमारी रक्षा कीजिए। आप गाय आदि और घोडे आदि उत्तम पशुओं के योग से राज्यश्री को हमारे लिए प्रकट कीजिए। हे प्रभु ! आपकी कृपा से हम लोग उत्तम मनुष्यों से बहुत वीर मनुष्य वाले अच्छे प्रकार होवें।
ओम् उतेदानीं भगवन्तः स्यामोत प्रपित्व उत मध्ये अह्नाम्।
उतोदिता मघवन्त्सूर्यस्य वयं देवानां सुमतौ स्याम।।4।।
(ऋग्वेदः--7.41.4)
अर्थः---हे भगवन् ! आपकी कृपा और अपने पुरुषार्थ से हम लोग इस समय प्रकर्षता, उत्तमता की प्राप्ति में और दोनों के मध्य में ऐश्वर्ययुक्त शक्तिमान् होवें। हे परमपूज्यनीय प्रभु ! बहुधन देने वाले, सूर्यलोक के उदय में पूर्ण विद्वान् धार्मिक आप लोगों की अच्छी उत्तम प्रज्ञा और सुमति में हम लोग सदा प्रवृत्त रहें।
ओम् भग एव भगवाँ अस्तु देवास्तेन वयं भगवन्तः स्याम।
तं त्वा भग सर्व इज्जोहवीति स नो भग पुर एता भवेह ।।5।।
(ऋग्वेदः--7.41.5)
अर्थः---हे सकलैश्वर्यसम्पन्न जगदीश्वर ! जिससे हम आपकी सब सज्जन निश्चय करके प्रशंसा करते हैं, सो आप हे ऐश्वर्यप्रद ! इस संसार और हमारे गृहस्थ आश्रम में अग्रगामी और आगे-आगे सत्यकर्मों में हमें बढाइये।
[10/24, 3:54 PM] Yogesh Sharma: (5.) अथ अतिथियज्ञः
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तद्यस्यैवं विद्वान् व्रात्योSतिथिर्गृहानागच्छेत्।।1।।
स्वयमेनमभ्युदेत्य ब्रूयाद् व्रात्य क्वा वात्सीर्व्रात्योदकं व्रात्य तर्पयन्तु व्रात्य यथा ते प्रियं तथास्तु व्रात्य यथा ते वशस्तथास्तु व्रात्य यथा ते निकामस्तथाSस्त्विति।।2।। (अथर्व. 15.11.1-2)
जब पूर्ण विद्वान् परोपकारी, सत्योपदेशक, गृहस्थों के घर आवें, तब गृहस्थ लोग स्वयं समीप जाकर उक्त विद्वान् को प्रणाम आदि करके उत्तम आसन पर बैठाकर पूछें कि कल के दिन कहाँ आपने निवास किया था। हे ब्रह्मन्, जलादि पदार्थ जो आपको अपेक्षित हों ग्रहण कीजिए, और हम लोगों को सत्योपदेश से तृप्त कीजिए।
जो धार्मिक, परोपकारी, सत्योपदेशक, पक्षपातरहित, शान्त सर्वहितकारक विद्वानों की अन्नादि से सेवा एवं उनसे प्रश्नोत्तर आदि करके विद्या प्राप्त करना अतिथियज्ञ कहाता है, उसको नित्यप्रति किया करें।
इन पाँच महायज्ञों को स्त्री-पुरुष प्रतिदिन करते रहें।
भोजन-मन्त्रः
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ओम् अन्नपतेSन्नस्य नो देह्यनमीवस्य शुष्मिणः।
प्र प्र दातारं तारिष ऊर्जं नो धेहि द्विपदे चतुष्पदे।। (यजुः—11.83)
यज्ञोपवीत-मन्त्रः
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ओं यज्ञोपवीतं परमं पवित्रं प्रजापतेर्यत्सहजं पुरस्तात्।
आयुष्यमग्र्यं प्रतिमुञ्च शुभ्रं यज्ञोपवीतं बलमस्तु तेजः।।1।।
(पार.गृह्य.2.2.11)
यज्ञोपवीतमसि यज्ञस्य त्वा यज्ञोपवीतेनोपनह्यामि।।2।। (पार.गृह्य. 2.2.11)
महामृत्युञ्जय-मन्त्रः
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ओम् त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्।
उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय मामृतात्।। (यजुः—3)
राष्ट्रिय-प्रार्थना
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ओम् आ ब्रह्मन् ब्रह्मणो ब्रह्मवर्चसी जायतामा राष्ट्रे राजन्यः शूरSइषव्योSतिव्याधी महारथो जायतां दोग्ध्री धेनुर्वोढानड्वानाशुः सप्तिः पुरन्धिर्योषा जिष्णू रथेष्ठाः सभेयो युवास्य यजमानस्य वीरो जायताम् निकामे निकामे नः पर्जन्यो वर्षतु फलवत्यो नSओषधयः पच्यन्तां योगक्षेमो नः कल्पताम्।। (यजुः—22.22)
ब्रह्मन्, स्वराष्ट्र में हों द्विज ब्रह्म-तेजधारी।
क्षत्रिय महारथी हों अरिदल-विनाशकारी।।
होवें दुधारू गौएँ पशु आश्व आशुवाही।
आधार राष्ट्र की हों नारी सुभग सदा ही।।
बलवान् सभ्य योद्धा यजमान-पुत्र होवें।
इच्छानुसार वर्षे पर्जन्य ताप धोवें।।
फल-फूल से लदी हों औषध अमोघ सारी।
हो योगक्षेमकारी स्वाधीनता हमारी।।
यज्ञप्रार्थना
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पूजनीय प्रभो, हमारे भाव उज्ज्वल कीजिए।
छोड देवें छल-कपट को मानसिक बल दीजिए।।
वेद की बोलें ऋचाएँ सत्य को धारण करें।
हर्ष में हों मग्न सारे शोक-सागर से तरें।।
अश्वमेधादिक रचाएँ विश्व के उपकार को।
धर्म-मर्यादा चलाकर लाभ दें संसार को।।
नित्य श्रद्धा-भक्ति से यज्ञादि हम करते रहें।
रोग-पीडित विश्व के संताप को हरते रहें।।
भावना मिट जाए मन से पाप अत्याचार की।
कामनाएँ पूर्ण होवें यज्ञ से नर-नारि की।।
लाभकारी हो हवन हर प्राणधारी के लिए।
वायु जल सर्वत्र हों शुभ गन्ध को धारण किए।।
स्वार्थ-भाव मिटे हमारा प्रेमपथ विस्तार हो।
इदन्न मम का सार्थक प्रत्येक में व्यवहार हो।।
हाथ जोडकर मस्तक वन्दना हम कर रहे।
"नाथ" करुणारूप करुणा आपकी सब पर रहे।।