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Thursday, May 5, 2011
श्री महिषासुरमर्दिनी स्तोत्रं
श्री महिषासुरमर्द्दिनीस्तॊत्रम्
अयिगिरिनन्दिनि नन्दितमॆदिनि विश्वविनॊदिनि नन्दनुतॆ
गिरिवरविन्ध्यशिरॊऽधिनिवासिनि विष्णुविलासिनि जिष्णुनुतॆ ।
भगवति हॆ शितिकण्ठकुटुम्बिनि भूरिकुटुम्बिनि भूरिकृतॆ
जय जय हे महिषासुरमर्द्दिनि रम्यकपर्द्दिनि शैलसुतॆ ॥ १ ॥
सुरवरवर्षिणि दुर्धरधर्षिणि दुर्मुखमर्षिणि हर्षरतॆ
त्रिभुवनपॊषिणि शंकरतॊषिणि किल्बिषमॊषिणि घॊषरतॆ ।
दनुजनिरॊषिणि दितिसुतरॊषिणि दुर्मदशॊषिणि सिन्धुसुतॆ
जय जय हे महिषासुरमर्द्दिनि रम्यकपर्द्दिनि शैलसुतॆ ॥ २ ॥
अयि जगदम्ब मदम्ब कदम्बवनप्रियवासिनि हासरतॆ
शिखरिशिरॊमणि तुङ्गहिमालयशृङ्गनिजालयमध्यगतॆ ।
मधुमधुरॆ मधुकैटभगञ्जिनि कैटभभञ्जिनि रासरतॆ
जय जय हे महिषासुरमर्द्दिनि रम्यकपर्द्दिनि शैलसुतॆ ॥ ३ ॥
अयि शतखण्ड विखण्डित रुण्डवितुण्डित शुण्डगजाधिपतॆ
रिपुगजगण्ड विदारण चण्डपराक्रम शुण्डमृगाधिपतॆ ।
निजभुजदण्डनिपातित खण्डविपातित मुण्डभटाधिपतॆ
जय जय हे महिषासुरमर्द्दिनि रम्यकपर्द्दिनि शैलसुतॆ ॥ ४ ॥
अयि रणदुर्मद शत्रुवधॊदित दुर्धर निर्ज्जर शक्तिभृतॆ
चतुरविचार धुरीण महाशिव दूतकृत प्रमथाधिपतॆ ।
दुरित दुरीह दुराशय दुर्मति दानवदूतकृतान्तमतॆ
जय जय हे महिषासुरमर्द्दिनि रम्यकपर्द्दिनि शैलसुतॆ ॥ ५ ॥
अयि शरणागत वैरि वधूवर वीरवराभयदायकरॆ
त्रिभुवनमस्तक शूलविरॊधिशिरॊऽधिकृतामलशूलकरॆ ।
धुमिधुमितामर दुन्दुभिनाद महॊ मुखरीकृत तिग्मकरॆ
जय जय हे महिषासुरमर्द्दिनि रम्यकपर्द्दिनि शैलसुतॆ ॥ ६ ॥
अयि निजहुङ्कृतिमात्रनिराकृत धूम्रविलॊचनधूम्रशतॆ
समरविशॊषितशॊणितबीज समुद्भवशॊणित बीजलतॆ ।
शिव शिव शुम्भनिशुम्भ महाहव तर्पितभूतपिशाचरतॆ
जय जय हे महिषासुरमर्द्दिनि रम्यकपर्द्दिनि शैलसुतॆ ॥ ७ ॥
धनुरनुसंग रणक्षणसंग परिस्फुरदंग नटत्कटकॆ
कनकपिशङ्गपृषत्कनिषङ्ग रसद्भटशृङ्ग हतावटुकॆ ।
कृतचतुरङ्ग बलक्षितिरङ्ग घटद्बहुरङ्ग रटद्बटुकॆ
जय जय हे महिषासुरमर्द्दिनि रम्यकपर्द्दिनि शैलसुतॆ ॥ ८ ॥
जय जय जप्यजयॆ जयशब्द परस्तुतितत्पर विश्वनुतॆ
भण भण भञ्जिमि भिंकृत नूपर शिञ्जितमॊहित भूतपतॆ ।
नटितनटार्ध नटीनटनायक नाटितनाट्य सुगानरतॆ
जय जय हे महिषासुरमर्द्दिनि रम्यकपर्द्दिनि शैलसुतॆ ॥ ९ ॥
अयि सुमनः सुमनः सुमनः सुमनॊहरकान्तियुतॆ
श्रितरजनी रजनी रजनी रजनीकर वक्त्रवृतॆ ।
सुनयन विभ्रमर भ्रमर भ्रमर भ्रमर भ्रमराधिपतॆ
जय जय हे महिषासुरमर्द्दिनि रम्यकपर्द्दिनि शैलसुतॆ ॥ १० ॥
सहितमहाहवमल्लमतल्लिक मल्लितरल्लक मल्लरतॆ
विरचितवल्लिक पल्लिक मल्लिक भिल्लिक भिल्लिक वर्गवृतॆ ।
सितकृतफुल्लसमुल्लसितारुण तल्लज पल्लव सल्ललितॆ
जय जय हे महिषासुरमर्द्दिनि रम्यकपर्द्दिनि शैलसुतॆ ॥ ११ ॥
अविरलगण्डगलन्मद मॆदुर मत्तमतङ्गज राजपतॆ
त्रिभुवन भूषण भूतकलानिधि रूपपयॊनिधि राजसुतॆ ।
अयि सुदतीजन लालसमानस मॊहन मन्मथ राजसुतॆ
जय जय हे महिषासुरमर्द्दिनि रम्यकपर्द्दिनि शैलसुतॆ ॥ १२ ॥
कमलदलामलकॊमलकान्तिकलाकलितामल फालतलॆ
सकल विलास कलानिलयक्रम कॆलि चलत् कलहंसकुलॆ ।
अलिकुलसङ्कुलकुवलयमण्डल मौलि मिलद्बकुलालिकुलॆ
जय जय हे महिषासुरमर्द्दिनि रम्यकपर्द्दिनि शैलसुतॆ ॥ १३ ॥
करमुरलीरव वीजितकूजित लज्जितकॊकिलमञ्जुमतॆ
मिलितपुलिन्द मनॊहरगुञ्जित रंजित शैलनिकुंजगतॆ ।
निजगणभूतमहाशबरीगण सद्गुण संभृत कॆलितलॆ
जय जय हे महिषासुरमर्द्दिनि रम्यकपर्द्दिनि शैलसुतॆ ॥ १४ ॥
कटितटपीतदुकूलविचित्रमयूख तिरस्कृत चन्द्ररुचॆ
प्रणत सुरासुर मौलिमणिस्फुरदंशुलसन्नखचन्द्ररुचॆ ।
जितकनकाचल मौलिपदॊर्जित निर्भरकुञ्जरकुंभकुचॆ
जय जय हे महिषासुरमर्द्दिनि रम्यकपर्द्दिनि शैलसुतॆ ॥ १५ ॥
विजितसहस्रकरैक सहस्रकरैक सहस्रकरैकनुतॆ
कृतसुरतारक संगरतारक संगरतारक सूनुसुतॆ ।
सुरथसमाधि समानसमाधि समाधि समाधि सुजातरतॆ
जय जय हे महिषासुरमर्द्दिनि रम्यकपर्द्दिनि शैलसुतॆ ॥ १६ ॥
पदकमलं करुणानिलये वरिवस्यति योऽनुदिनं स शिवॆ
अयि कमलॆ कमलानिलयॆ कमलानिलयः स कथं न भवॆत् ।
तवपदमॆव परंपदमित्यनुशीलयतॊ मम किं न शिवॆ
जय जय हे महिषासुरमर्द्दिनि रम्यकपर्द्दिनि शैलसुतॆ ॥ १७ ॥
कनकलसत्कलसिन्धुजलैरनुसिञ्चिनुतॆ गुणरङ्गभुवं
भजति स किं न शचीकुचकुम्भ तटीपरिरम्भसुखानुभवम् ।
तव चरणं शरणं करवाणि नतामरवाणि निवासि शिवं
जय जय हे महिषासुरमर्द्दिनि रम्यकपर्द्दिनि शैलसुतॆ ॥ १८ ॥
तव विमलॆन्दुकुलं वदनॆन्दुमलं सकलं ननु कूलयतॆ
किमु पुरुहूतपुरीन्दुमुखीसुमुखीभिरसौ विमुखीक्रियतॆ ।
मम तु मतं शिवनामधनॆ भवती क्रुपया किमुतत्क्रियतॆ
जय जय हे महिषासुरमर्द्दिनि रम्यकपर्द्दिनि शैलसुतॆ ॥ १९ ॥
अयि मयि दीनदयालुतया कृपयैव त्वया भवितव्यमुमॆ
अयि जगतॊ जननी कृपयासि यथासि तथाऽनुमितासिरतॆ ।
यदुचितमत्र भवत्युररीकुरुतादुरुतापमपाकुरुतॆ
जय जय हे महिषासुरमर्द्दिनि रम्यकपर्द्दिनि शैलसुतॆ ॥ २० ॥
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